astavakra geeta part 1 by Alka Popli Ji

[5/23, 10:23 PM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः ।

तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः ॥१-१९॥



जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी ।।१९।।

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एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे ।

नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा ॥१-२०॥



जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है ।।२०।।

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[5/23, 10:23 PM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀जनक उवाच -

अहो निरंजनः शान्तो

बोधोऽहं प्रकृतेः परः।

एतावंतमहं कालं

मोहेनैव विडम्बितः॥२-१॥



राजा जनक कहते हैं - आश्चर्य! मैं निष्कलंक, शांत, प्रकृति से परे, ज्ञान  स्वरुप हूँ, इतने समय तक मैं मोह से संतप्त किया गया॥१॥

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यथा प्रकाशयाम्येको

देहमेनो तथा जगत्।

अतो मम जगत्सर्वम-

थवा न च किंचन॥२-२॥



जिस प्रकार मैं इस शरीर को प्रकाशित करता हूँ, उसी प्रकार इस विश्व को भी। अतः मैं यह समस्त विश्व ही हूँ अथवा कुछ भी नहीं॥२॥

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[5/25, 1:19 PM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀सशरीरमहो विश्वं

परित्यज्य मयाऽधुना।

कुतश्चित् कौशलादेव

परमात्मा विलोक्यते॥२-३॥



अब शरीर सहित इस विश्व को त्याग कर किसी कौशल द्वारा ही मेरे द्वारा परमात्मा का दर्शन किया जाता है॥३॥

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यथा न तोयतो भिन्नास्-

तरंगाः फेन बुदबुदाः।

आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम् ॥२-४॥



जिस प्रकार पानी लहर, फेन और बुलबुलों से पृथक नहीं है उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं से निकले इस विश्व से अलग नहीं है॥४॥

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[5/27, 3:09 PM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀आत्माऽज्ञानाज्जगद्भाति

आत्मज्ञानान्न भासते।

रज्जवज्ञानादहिर्भाति

तज्ज्ञानाद्भासते न हि॥ २-७॥



आत्मा अज्ञानवश ही विश्व के रूप में दिखाई देती है, आत्म-ज्ञान होने पर यह विश्व दिखाई नहीं देता है। रस्सी अज्ञानवश सर्प जैसी दिखाई देती है, रस्सी का ज्ञान हो जाने पर सर्प दिखाई नहीं देता है॥७॥

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प्रकाशो मे निजं रूपं

नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः।

यदा प्रकाशते विश्वं

तदाऽहंभास एव हि॥ २-८॥



प्रकाश मेरा स्वरुप है, इसके अतिरिक्त मैं कुछ और नहीं हूँ। वह प्रकाश जैसे इस विश्व को प्रकाशित  करता है वैसे ही इस "मैं" भाव को भी॥८॥

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[5/28, 11:46 AM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀अहो विकल्पितं

विश्वंज्ञानान्मयि भासते।

रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ

वारि सूर्यकरे यथा॥ २-९॥



आश्चर्य, यह कल्पित विश्व अज्ञान से मुझमें दिखाई देता है जैसे सीप में चाँदी, रस्सी में सर्प और सूर्य किरणों में पानी॥९॥

⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐

मत्तो विनिर्गतं विश्वं

मय्येव लयमेष्यति।

मृदि कुम्भो जले वीचिः

कनके कटकं यथा॥ २-१०॥



मुझसे उत्पन्न हुआ विश्व मुझमें ही विलीन हो जाता है जैसे घड़ा मिटटी में, लहर जल में और कड़ा सोने में विलीन हो जाता है॥१०॥

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[5/29, 7:26 AM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀अहो विकल्पितं

विश्वंज्ञानान्मयि भासते।

रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ

वारि सूर्यकरे यथा॥ २-९॥



आश्चर्य, यह कल्पित विश्व अज्ञान से मुझमें दिखाई देता है जैसे सीप में चाँदी, रस्सी में सर्प और सूर्य किरणों में पानी॥९॥

⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐

मत्तो विनिर्गतं विश्वं

मय्येव लयमेष्यति।

मृदि कुम्भो जले वीचिः

कनके कटकं यथा॥ २-१०॥



मुझसे उत्पन्न हुआ विश्व मुझमें ही विलीन हो जाता है जैसे घड़ा मिटटी में, लहर जल में और कड़ा सोने में विलीन हो जाता है॥१०॥

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[5/30, 9:54 AM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀अहो अहं नमो मह्यं

विनाशो यस्य नास्ति मे।

ब्रह्मादिस्तंबपर्यन्तं

जगन्नाशोऽपि तिष्ठतः॥ २-११॥



आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, समस्त विश्व के नष्ट हो जाने पर भी जिसका विनाश नहीं होता, जो तृण से ब्रह्मा तक सबका विनाश होने पर भी विद्यमान रहता है॥११॥

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अहो अहं नमो मह्यं

एकोऽहं देहवानपि।

क्वचिन्न गन्ता नागन्ता

व्याप्य विश्वमवस्थितः॥ २-१२॥



आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, मैं एक हूँ, शरीर वाला होते हुए भी जो न कहीं जाता है और न कहीं आता है और समस्त विश्व को व्याप्त करके स्थित है॥१२॥

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[5/31, 7:27 PM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता

त्रितयं नास्ति वास्तवं।

अज्ञानाद् भाति यत्रेदं

सोऽहमस्मि निरंजनः॥ २-१५॥

ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता यह तीनों वास्तव में नहीं हैं, यह जो अज्ञानवश दिखाई देता है वह निष्कलंक मैं ही हूँ॥१५॥  

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द्वैतमूलमहो दुःखं नान्य-

त्तस्याऽस्ति भेषजं।

दृश्यमेतन् मृषा सर्वं

एकोऽहं चिद्रसोमलः॥ २-१६॥



द्वैत (भेद)  सभी दुखों का मूल कारण है। इसकी इसके अतिरिक्त कोई और औषधि नहीं है कि यह सब जो दिखाई दे रहा है वह सब असत्य है। मैं एक, चैतन्य और निर्मल हूँ॥१६॥

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[6/2, 10:01 AM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀बोधमात्रोऽहमज्ञानाद्

उपाधिः कल्पितो मया।

एवं विमृशतो नित्यं

निर्विकल्पे स्थितिर्मम॥ २-१७॥



मैं केवल ज्ञान स्वरुप हूँ, अज्ञान से ही मेरे द्वारा स्वयं में अन्य गुण कल्पित किये गए हैं, ऐसा विचार करके मैं सनातन और कारणरहित रूप से स्थित हूँ॥१७॥

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न मे बन्धोऽस्ति मोक्षो वा

भ्रान्तिः शान्तो निराश्रया।

अहो मयि स्थितं विश्वं

वस्तुतो न मयि स्थितम्॥२-१८॥



न मुझे कोई बंधन है और न कोई मुक्ति का भ्रम। मैं शांत और आश्रयरहित हूँ। मुझमें स्थित यह विश्व भी वस्तुतः मुझमें स्थित नहीं है॥१८॥  

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[6/3, 10:11 AM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀



सशरीरमिदं विश्वं

न किंचिदिति निश्चितं।

शुद्धचिन्मात्र आत्मा च

तत्कस्मिन् कल्पनाधुना॥२-१९।



यह निश्चित है कि इस शरीर सहित यह विश्व अस्तित्वहीन है, केवल शुद्ध, चैतन्य आत्मा का ही अस्तित्व है। अब इसमें क्या कल्पना की जाये॥१९॥



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?शरीरं स्वर्गनरकौ

बन्धमोक्षौ भयं तथा।

कल्पनामात्रमेवैतत्

किं मे कार्यं चिदात्मनः॥ २-२०॥



शरीर, स्वर्ग, नरक, बंधन, मोक्ष और भय ये सब कल्पना मात्र ही हैं, इनसे मुझ चैतन्य स्वरुप का क्या प्रयोजन है॥२०॥

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[6/4, 7:36 AM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀



अहो जनसमूहेऽपि

न द्वैतं पश्यतो मम।

अरण्यमिव संवृत्तं

क्व रतिं करवाण्यहम्॥२-२१॥



आश्चर्य कि मैं लोगों के समूह में भी दूसरे को नहीं देखता हूँ, वह भी निर्जन ही प्रतीत होता है। अब मैं किससे मोह करूँ॥२१॥

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नाहं देहो न मे देहो

जीवो नाहमहं हि चित्।

अयमेव हि मे बन्ध

आसीद्या जीविते स्पृहा॥ २-२२॥



न मैं शरीर हूँ न यह शरीर ही मेरा है, न मैं जीव हूँ , मैं चैतन्य हूँ। मेरे अन्दर जीने की इच्छा ही मेरा बंधन थी॥२२॥

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[6/6, 8:35 PM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀अष्टावक्र उवाच -

अविनाशिनमात्मानं

एकं विज्ञाय तत्त्वतः।

तवात्मज्ञानस्य धीरस्य

कथमर्थार्जने रतिः॥३- १॥



अष्टावक्र कहते हैं - आत्मा को अविनाशी और एक जानो । उस आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर, किसी बुद्धिमान व्यक्ति की  रूचि धन अर्जित करने में कैसे हो सकती है॥१॥

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आत्माज्ञानादहो

प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।

शुक्तेरज्ञानतो लोभो

यथा रजतविभ्रमे॥३- २॥



स्वयं के अज्ञान से भ्रमवश विषयों से लगाव हो जाता है जैसे सीप में चाँदी का भ्रम होने पर उसमें लोभ उत्पन्न हो जाता है॥२॥

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[6/7, 10:00 AM] Alka Ji: 🌻🌻🌻🌺🌺🌺🍀🍀🍀विश्वं स्फुरति यत्रेदं

तरङ्गा इव सागरे।

सोऽहमस्मीति विज्ञाय

किं दीन इव धावसि॥३- ३॥



सागर से लहरों के समान जिससे यह विश्व उत्पन्न होता है, वह मैं ही हूँ जानकर तुम एक दीन जैसे कैसे भाग सकते हो॥३॥

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श्रुत्वापि शुद्धचैतन्य

आत्मानमतिसुन्दरं।

उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो

मालिन्यमधिगच्छति॥३- ४॥



यह सुनकर भी कि आत्मा शुद्ध, चैतन्य और अत्यंत सुन्दर है तुम कैसे जननेंद्रिय में आसक्त होकर मलिनता को प्राप्त हो सकते हो॥४॥

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